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कविता

हलफ - 1

मृत्युंजय


याद आई तेरी उस वक्त
जब घनी रात उफनने को थी
शहर में चारों तरफ खामोशी के किस्से थे
और थे रोज के गम, रोजगार के ही गम
एक ब एक चमक उठी बिखरी सी, गुमनाम सी याद
गोया रख दी हो किसी यार ने सरे-बज्म शराब

याद के ऐसे घने लम्हे में
कोई तो साथ दे, मिलाए हाथ
अपने संग ले चले घुला ले मुझे
न सही चाँद के पार आसमान तक ही सही
कभी तो सोचने दे इस जमी के पार कहीं
यहाँ तो डर है फकत डर है और डर ही है
इसी के बदले में है गम औ है जम्हूरियते गम
कभी तो इस शहर के पार मुझे कर मौला !

ऐसी यादें जो बहुत कम हैं और दिलकश हैं,
फिर भी वे बहुत याद करती हैं
वे बनाती हैं ना-मुकम्मल ख्वाब
जिनमे हर रंग की गुंजाइश है
वक्त के हाशिए पे रक्खे ख्वाब
आखिरी वक्त पर थक जाते हैं
और फिर वे भी मोड़ अपना रुख
दुख का संग छोड़, तोड़ अहदे वफा
महफिले शौक में रक्स आजमाने लगते हैं

चलें तो इस नगर के पार, मगर जाए कहाँ
हजारहाँ हैं बिखरे हुए वक्त के टूटे हुए हाथ
इशारे करते हैं बुलाते हैं और गाते भी हैं
हर एक को एक वकील चाहिए और एक गवाह
कि जब से लिखा गया है वक्त
वो तब से आज तलक कटघरा बनाते हैं

इस भरी रात में जब वही याद मौजूँ है
कोई उठाओ मुझे
उठा के पटको मुझे वक्त कि चट्टानों पे
के मैंने कभी सच को सच नहीं लिक्खा
के मैं जो जानता था मानता नहीं था वह
के मैं जो करता हूँ वो मुकम्मल गद्दारी है

याद के इस अनोखे वक्फे में
ये हलफनामा हो कुबूल अगर
तो आओ, फिर से जप्त करो मेरा दिल
औ वो खंजर,
उसको मेरे दिल के खाली कमरे में
महफूज ही रख दो।

 


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